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सड़क -15-Nov-2022

कविता -सड़क


दो किनारों से बनी

हां ईंट पत्थर भी घनी

मुड़ दाएं बाएं कभी

सुदूर तक है वह चली

भीड़ देखा है पथिक का

मन में है मंजिल कही का

नित भागते हैं जा रहे

है दूसरों की क्या पड़ी,

धुन में अपने कुछ गा रहे

मंद मंद मुस्कुरा रहे

चलते चलते जा रहे हैं

ना पता मुझको कहां को

ये पथिक हैं जा रहें है। 

कुछ पथिक थे यूं दुःखी

जीवन दुःख से थी भरी

हाय हाय की वेदना से 

कराहते थे हर घड़ी

भागते चलते सफ़र में

कौन किसका क्यों सुनें?

कोई जिये कोई मरे

क्या पड़ा देखे मुड़े। 

दुःख सुख की ये दो किनारे

चलती चली बन प्यारे प्यारे

बिन किनारों के न सड़कें

जैसे ही जीवन को जकड़े

आरम्भ से अन्तिम सफर तक

दोस्त से ले हमसफ़र तक

मिलते है अपने पराए

कोई रोए कोई गाए

ऐसे ही चलती चली

भीड़ से सड़के भरी। 


रचनाकार -रामबृक्ष बहादुरपुरी अम्बेडकरनगर यू पी 






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4 Comments

बेहतरीन

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Ayshu

16-Nov-2022 06:34 AM

Bahut khub

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आपके लिए मैं सदैव ही निःशब्द हूं आदरणीय। आपकी लेखनी अनुपम है।💐👏

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